उत्तराखंड में सख्त भू कानून की मांग को लेकर लंबे वक्त से चर्चा है, कुछ आंदोलन हुए हैं, सामाजिक और राजनीतिक लिहाज से भी आवाज उठी है। चुनावी फायदे के लिए बयानबाजी भी बहुत हुई है। मगर हकीकत यही है कि भू कानून अब तक जमीन पर आया नहीं। मुख्यमंत्री धामी ने एक कमेटी बनाई दावा है कि कमेटी ने अपनी रिपोर्ट सरकार के दे दी है। आगे क्या होगा उसका इंतजार है। इस बीच कांग्रेस नेता आनंद रावत ने भू कानून के मुद्दे पर पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत समेत उत्तराखंड के सभी बड़े नेताओं की कार्यशैली पर सवाल उठाए हैं। आनंद रावत ने सोशल मीडिया पोस्ट के जरिये सबकी पोल खोलने की कोशिश की है।
आनंद रावत की पोस्ट में क्या है?
आनंद रावत ने लिखा है “भू-क़ानून और मूल निवास ही उत्तराखंड राज्य आन्दोलन का आधार था “
क्या इस विषय पर मुझे बोलने का नैतिक आधार है ?
हाँ ! मुझे बोलना चाहिए क्योंकि इस प्रदेश में भू-क़ानून के लिए सबसे पहली आवाज़ मैंने उठायी थी, 2012 में, जब इस प्रदेश के तथाकथित ज़मीन से जुड़े नेता इसकी प्रासंगिकता को नहीं देख रहे थे ?
मैं युवा कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष था, और प्रदेश में विजय बहुगुणा जी के नेतृत्व में कांग्रेस की सरकार थी । समय का चक्र घूमा और 2014 में मेरे पिताजी प्रदेश के मुख्यमंत्री बन गए । हल्द्वानी के चंद्रशेखर करगेती व कोटद्वार के सामाजिक कार्यकर्ता मुजीब नैथानी जी ने मुझे कठघरे में खड़ा करते हुए ये सवाल मुझपर दाग दिया कि “ अब नहीं तो कब “ ?
सवाल भी सही था ? लेकिन पिताजी उत्तराखंडियत के नए नए झण्डेबरदार बने थे, और उनकी प्राथमिकताए राजनीति आधारित अलग थी, हालाँकि मेरी कार्यशैली मेरी हैसियत अनुसार नशा उन्मूलन, युवा रोज़गार व उत्तराखंडियत से जुड़ी बोली भाषा, परम्परागत खेल आज भी मेरी प्राथमिकताओं को स्पष्ट करती है । ख़ैर, पिताजी अब कहते हैं कि सख़्त भू-क़ानून बनाएँगे, लेकिन क्या उसके प्रावधान होंगे, उस विचार को कभी नहीं खोलते ?
90 के दशक में सक्रिय नेता भगत सिंह कोश्यारी जी, खण्डूरी जी, हरीश रावत जी, निशंक जी, दिवाकर भट्ट जी ऐरी जी और ( विजय बहुगुणा जी ), सभी स्वस्थ्य व सक्रिय है, कोई स्वयं तो कोई अपने हाई ब्रीड बच्चों के माध्यम से, लेकिन जैसे राज्य की राजधानी जैसे मूल विषय का कचूमर निकाल दिया, ऐसे ही भू-क़ानून व मूल निवास पर अपने विचार स्पष्ट नहीं करेंगे, तो इसका भी कचूमर निकलना तय है ।
ख़ैर, भू-क़ानून व मूल निवास की परिकल्पना को हल्के से स्वर्गीय नारायण दत्त तिवारी जी ने छुवा था । उनके कार्यकाल में कोई भी बाहरी व्यक्ति 500 वर्ग मीटर से अधिक ज़मीन नही ले सकता व स्थाई/ मूल निवास की कट ऑफ़ 1985 था । उनके उत्तरार्ध के मुख्यमंत्रियों ने इस व्यवस्था को अपने राजनीतिक फ़ायदे के लिए इनमे संशोधन कर दिया ।
सवाल है कि सख़्त भू-क़ानून कैसे बनेगा और मूल निवास कैसे लागू होगा ? क्या इसपर नेताओं के विचार स्पष्ट नही होने चाहिए ?
मेरे अनुसार सख़्त भू-क़ानून केवल 2 तरीक़े से बन सकता है,
भू कानून को लेकर आनंद रावत ने कुछ सुझाव दिये हैं
1. हिमाचल प्रदेश का लैंड रीफ़ॉर्म ऐक्ट 1972 का सेक्शन 118 जिसमे हिमाचल का कृषक ही हिमाचल में कृषि भूमि ख़रीद सकता है कोई बाहरी व्यक्ति नही । ऐसा ही क़ानून उत्तराखंड में बने । चूँकि जिस भूमि पर मकान नही है वो भूमि कृषि भूमि कहलाती है, अगर उसका लैंड उपयोग में बदलाव नही किया गया है ?
2. उत्तर प्रदेश ज़मींदारी उन्मूलन और लैंड रीफ़ॉर्म ऐक्ट 1950 का सेक्शन 143, में बदलाव किए जाए । जिसके अनुसार भू-उपयोग का अधिकार तहसीलदार के बजाय विधानसभा के पास हो और भू-उपयोग बदलने के लिए मूल निवास अनिवार्य हो ?
मूल निवास की कट ऑफ़ तारीख़ 1985 व्यावहारिक है, क्योंकि उत्तराखंड में 68 से अधिक गोट-खत्ते है, जिसमे क़रीब 15 से 20 लाख की आबादी निवास करती है, जो यहाँ के मूल निवासी है परन्तु राशन कार्ड के अलावा कोई ज़मीन के काग़ज़ात नही है । इसके अलावा कई जनजातीय व खानाबदोश रोज़गार आधारित समुदाय है, जिनके लिए मूल निवास 1985 व्यावहारिक होगा । वैसे प्रदेश में जाति प्रमाण पत्र बनाने की कट ऑफ़ 1985 है ।
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