3 September 2025

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हरीश रावत की ‘चटोरी’ जीभ और मलाल!

हरीश रावत की ‘चटोरी’ जीभ और मलाल!

पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत ने अपने खाने के शौक और उत्तराखंड के खान पान को लेकर एक बार फिर अपनी बात साझा की है। हरीश रावत ने सोशल मीडिया पर पोस्ट शेयर की है जिसमें उन्होंने अपने अनुभव, अपनी कोशिशें और कुछ चीजें ना कर पाने की कसक जाहिर की है। हरीश रावत ने लिखा है उत्तराखंड देवस्थान है, अपने त्योहारों और अपने पकवानों के लिए पहचाना जाता है। हरेला तो हमारा राज्य पर्व है, उसके ठीक एक महीने के बाद अर्थात 17 अगस्त को #घी_संक्रांति आती है। यह एक ऐसा त्यौहार है जिसे दूध-दही, घी और अन्न के पकवानों के लिए पहचाना जाता है। बचपन में हम बच्चे #हरेला, एड़ी देवता अर्थात गौधन का देवता और अंत में घी संक्रांत का बड़ी उत्सुकता से प्रतीक्षा करते थे। मैं तो घी और खीर खाने के लालच में मोहनरी व अदबोड़ा के बीच में चक्कर लगाता रहता था। अदबोड़ा, मोहनरी से लगभग डेढ़ किलोमीटर की दूरी पर है, वहां मेरा नैनीहाल है। इस 17 अगस्त को घी सक्रांत मनाई, मुझे अपने नाना-नानी, मामा-मामियां, ईजा, चाचा-चाचियाँ सब लोग याद आये, अपना बड़ा सा कुटुंब कबीला भी याद आया।

खान पान का शौक और उत्तराखंड के पकवान

हरीश रावत आगे लिखते हैं गांव के त्योहारों का आनंद लेते-लेते मैं 1980 में भारत की संसद में पहुंच गया। दुनिया के हर हिस्से के पकवानों का आनंद उठाने के लिए मेरी चटोरी जीभ हमेशा उत्सुक रहती है, कभी पार्टी के काम से तो कभी पार्लियामेंट की कमेटियों के साथ जिस राज्य का दौरा करते थे, मैं वहॉं के पकवानों की जानकारी पहले ले लेता था ताकि वहां के विशेष पकवानों के स्वाद से अपनी चटोरी जीभ को उपकृत कर सकूं। चटकारे लेकर के खाता भी था और साथ-साथ खूब प्रशंसा भी करता था। धीरे-धीरे मेरे कान में कोई यह कहने लगा कि तुम्हारे राज्य के भी कुछ विशेष प्रसिद्ध पकवान हैं, मोहनरी के थे, अदबोड़ा के थे, अल्मोड़ा के थे, गढ़वाल के भी थे और हरिद्वार का उड़द की दाल, चावल, घी-बूरा भी है! मगर उत्तराखंडी पकवान के रूप में किसी की ख्याति, खुशबू एक जिले से बाहर दूसरे जिले में भी हो या पूरे राज्य के अंदर हो या राज्य से बाहर हो, ऐसा नहीं है। दूसरे राज्यों के पकवानों की प्रशंसा करते-करते मुझे लगने लगा छोला-भटूरा, मिस्सी रोटी, सरसों की साग, इडली-डोसा, ढोकला, समोसा, रसगुल्ला व रसम-भात के साथ कुछ मेरे गांव के पकवान भी हो जिनकी सार्वभौम न सही, मेरे राज्य के अंदर तो पहचान हो। 2014 में अंधे के हाथ बटेर आ गई, मुख्यमंत्री बन गया। मैंने धीरे-धीरे अपने मन की दबी इच्छा को बाहर निकालना प्रारंभ कर दिया। इसी चक्कर में मैं उत्तराखंड के पकवानों का चलता फिरता ढोल बन गया और मैंने अपनी अतृप्त इच्छा को पूरा करने के लिए कई ढेर सारे उपाय प्रारंभ किये जिससे उत्तराखंडी अन्न और उसके पकवान चर्चा में आएं। जैसे ही हरेले का मोर्चा फतेह हुआ, मैंने घी संक्रांत का बेड़ा उठा लिया और मुझको मार्गदर्शक के रूप में एक संस्था मिल गई जिसको धाद के नाम से जाना जाता है, सामाजिक संगठन है। हरेले से लेकर घी संक्रांति तक उनके अपरमित योगदान को मैं हमेशा प्रणाम करता रहूंगा। उस संस्था के द्वारा कंट्रीब्यूटरी पद्धति से उत्तराखंडी पकवानों के भोज आयोजित किए जाते थे। मैंने सरकार की तरफ से भोज आयोजित करना प्रारंभ किया। उनमें बनने वाले व्यंजनों का एक बड़ा समर्थक समूह खड़ा हुआ। मुझे लगा कि गांव-गांव तक पहुंचाने के लिए इसके साथ झुमेलो और झोड़ों को भी जोड़ दिया जाए। हमने इसकी प्रतियोगिताएं भी प्रारंभ की, जिले-जिले में व्यंजन प्रतियोगिताएं भी प्रारंभ करवाई, देश के सर्वाधिक शेफ बड़े-बड़े होटलों में उत्तराखंड के लोग हैं। विशेष तौर पर पूर्वी एशिया पश्चिमी एशिया के होटलों में यदि उत्तराखंड का शेफ न हो तो फिर आप यह समझिये कि वह होटल किसी काम का नहीं है। अपने व्यंजनों के प्रति उनका प्रेम भी है।

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रह गई कसक, रह गया मलाल

हरीश रावत ने अपनी बात आगे बढ़ाते हुए लिखा मुझे याद है जापान में वहां के पांच सितारा होटल में मैं रुका था, उस समय केंद्र सरकार का मंत्री था। वहां शेफ की तरफ से स्पेशल डिश मुझे सर्व की गई, तब मुझे पता चला कि यहां के शेफ महोदय हमारे घनसाली जिला टिहरी के हैं। मैंने अपनी इस नॉलेज का फायदा उठाया और उनको भी इस काम में जोड़ा। नैनीताल में हमने देश के बड़े चर्चित शेफ हैं कपूर को भी आमंत्रित किया और झंगोरे की खीर की इतनी मार्केटिंग की कि वह राजभवन से होते हुए राष्ट्रपति भवन तक पहुंच गई। यह सत्यता है कि कई व्यंजन चर्चा में आए। मगर एक सार्वभौम पहचान बनाने में ताकि जो आम स्वादु हैं देश के अलग-अलग हिस्सों का उत्तराखंड आकर के या उत्तराखंड के बाहर भी किसी उत्तराखंडी व्यंजन जिसका आनंद लेना चाहें तो उनको वह डिश होटल में उपलब्ध हो सके, ढाबों में उपलब्ध हो सके, हम इस स्थिति तक अपने किसी भी व्यंजन को लेकर के नहीं पहुंच पाए हैं। यह कष्ट मुझको बड़ा सालता है। मेरी हालत यह है कि क्या कहूं कुछ कहा न जाए, बिन कहे रहा भी ना जाए। सत्ता तो मडुवे को मिलेट बनाने में तुल गई है, उनको तो मडुवा कहने में संकोच नजर आता है। पर्यटन मंत्री जी गुजराती डिशों पर जोर देते हैं, अच्छी बात है। मैं उनके इस प्रयास की आलोचना नहीं कर रहा हूं। लेकिन उसके साथ हमारे व्यंजन भी कहीं हमारे सरकारी होटल के मेन्यू कार्ड में सम्मिलित हो सके यह एक एवरेस्ट चढ़ने जैसा काम हो गया है। राज्य के जितने निवास थे चाहे दिल्ली, कोलकाता, मुंबई या लखनऊ का हो मैंने उनमें उत्तराखंडी व्यंजन प्रारंभ करवाये थे और प्रारंभ में उनकी बड़ी मांग रही, लोग आए। उसी का परिणाम है कि दिल्ली के कई मोहल्लों में पहाड़ी अनाज के छोटे-छोटे आउटलेट खुल गए। झंगोरा, मडुवे का आटा, गहत, भटट् आदि-आदि! लेकिन हम अपने ही लोगों के बीच तक रह गए। दुनिया के खान-पान के इतने बड़े मार्केट में, बहुत बड़ा मार्केट है, लाखों-लाख करोड़ रुपए का मार्केट है उसमें हम कहीं एक किनारे को भी नहीं पकड़ पा रहे हैं। जबकि हमारे अन्नपूर्णाओं के हाथ का स्वाद से तो भगवान भी तृप्त होते हैं। जब गौग्रास निकालते हैं, अन्नंम ब्रह्मा रसो विष्णु के उद्घोष के साथ देवी-देवताओं को अन्न का भोग लगाते हैं तो इतना स्वादिष्ट होता है मेरी मां, बहनों का बनाया हुआ अन्न, वह भी स्वर्ग में आनंदित होकर तृप्त हो जाते हैं।

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सरकार, सियासत और सवाल

आज की वाणिज्यिक दुनिया के अंदर हम अपने फूड मार्ट बना ही नहीं पा रहे हैं, अपने राज्य में भी नहीं बन पा रहे हैं। मैंने मुख्यमंत्री के तौर पर आदेश दिया कि आप नेशनल हाईवेज में चौड़ी-चौड़ी जगह निकलवाइये, वहां फुट मार्ट और हैंडीक्राफ्ट मार्ट खोलिए। ऐसा हो पाता उससे पहले मेरी ही विदाई हो गई। लेकिन हमारी सरकार के बाद जो लोग आए उन्होंने सूत्र को पड़कर के आगे बढ़ाने के बजाय उस सूत्र को वहीं छोड़ दिया। जैसे कितना ही स्वादिष्ट हो, गरम आलू हाथ में रख दो तो आदमी एकदम उसको नीचे छोड़ देता है, आज की सरकार ने इसे हरीश रावत का मिशन मानकर के सारे अन्नपूर्णा शेष प्रयासों को छोड़ दिया। इंदिरा अम्मा कैंटीन बंद होने के लिए विवश कर दी गई, सरकारी तौर पर व्यंजन प्रतियोगिताएं आदि बंद कर दी गई और मुझे नहीं लगता कि सरकारी दावतों में भी कोई उत्तराखंडी डिश प्रचारित करके सर्व की जाती हो! पिछले साल मेरे एक दोस्त अपने परिवार के साथ 7 दिन के लिए उत्तराखंड भ्रमण पर आए। उन्होंने मुझसे कहा हरीश रावत जी अपने यहां की कुछ ऐसी डिश बताओ जिनका मैं अपनी पत्नी व परिजनों को स्वाद चखा सकूँ। मैंने उनको कुछ डिश बतायी। मैंने उनसे कहा मसूरी में मिल जाएंगे, देहरादून में मिल जाएंगे, अल्मोड़ा में मिल जाएंगे और जब वह 7 दिन बाद वापस लौट रहे थे तो उन्होंने मुझसे कहा कि यार हम खोजते थक गये, तुमने कैसे व्यंजन बताए जिसका मैन्यू किसी भी होटल में था ही नहीं। मैं अपने को कोसता रह गया। मैं उनको कुछ सफाई नहीं दे पाया। हम ही एक ऐसे राज्य हैं जिसमें बद्रीनाथ और केदारनाथ में भी छोले-भटूरे, इडली, डोसा, लच्छेदार पराठा सब कुछ मिल जाएगा। मगर फाडू नहीं मिलेगा, भटवाणी नहीं मिलेगी, चैंसवाणी नहीं मिलेगी, झंगोरे की खीर नहीं मिलेगी, मडुवे की रोटी और बद्री गाय का घी नहीं मिलेगा। अब कहीं-कहीं अरसा जरूर मिलने लग गया है। आगरा खाल और लैंसडाउन के आस-पास मिल रहा है, वह अल्मोड़ा की बाल मिठाई का कुछ मुकाबला कर रहा है। लोग मुझसे कहते हैं कि तुम रोज कभी कुछ खाते हो, कभी कुछ खाते हो उसका वीडियो बनाकर के डालते हो ! मेरे मन की गहराई में यह एक दोष बोध समाया हुआ है कि हमको जानने वाले बहुत लोग हैं। मगर हमारा शरीर जिस अन्न व जिन व्यंजनों से बना है उनको जानने वाले बहुत कम है। इसलिए लोग हमको जानते हैं उन तक हम अपने व्यंजनों का एक संदेश पहुंचाते हैं। एक संदेश अपने उन प्रसिद्ध उत्तराखंडियों को पहुंचाने का प्रयास है, जिनकी फेसबुक पर लाखों-करोड़ों लोग हैं। हमारे प्रसिद्ध लोग किसी उत्तराखंडी व्यंजन को अपनी फेसबुक या अपने ट्विटर हैंडल पर एक छोटा सा ट्वीट कर चर्चा में ले आएं तो उत्तराखंडी पकवानों का अभिमान और अधिक गतिमान हो जाएगा। सरकार क्या करेगी मैं नहीं जानता, लेकिन मैं अपनी अतृप्त आत्मा का श्राद्ध करने का बहाना ढूंढता रहता हूं। इसलिए कभी बद्री गाय का घी, तो कभी जम्बू गंदरायणी तो कभी काकड़ी, नींबू, काफल और काफल तो प्रधानमंत्री जी को भी अच्छे लगने लग गये हैं, भले ही जुलाई के महीने में लगे हों ! मगर चर्चा में तो हैं और भी बहुत सारी चीज़ें हैं जो प्रतीक्षा में खड़ी हैं तो मैंने इस बार सोचा कि हरीश रावत और कुछ नहीं तुम अपने घर में अपने 5-7 मित्रों को बुलाकर के उनके साथ अपनी अतृप्त आत्मा को कुछ भोग लगाओ और उनके साथ उत्तराखंडी व्यंजनों का आनंद लो और मैं सौभाग्यशाली हूं कि मेरे कुछ मित्र आए और उनमें कुछ पत्रकार मित्र भी आये। मैं उम्मीद करता हूं जब कभी उनकी कलम चलेगी तो वह कहीं न कहीं अपने इन पकवानों का उल्लेख भी करेंगे। यह एक सतत् चलने वाला अभियान है। इस अभियान को हजारों स्वयंसेवकों की आवश्यकता है। हम यदि संकल्प ले लें कि हमें राष्ट्रीय भोज पदार्थों की लंबी सी लिस्ट में अपने व्यंजन का भी नाम देखना है तो हम अपने ही जीवन काल में ऐसा होता देखेंगे। आज दर्जनों ऐसे पकवानों के ढाबे या होटल खुल गए हैं। पौष्टिक व जैविक आहार हैं, थोड़ा महंगे हैं। हम फाणू-भात, कापा-भात, चुणकाणी व चैंसवाणी-भात, बेड़ू की रोटियां (पराठों का विकल्प) आदि के ठेलों को प्रमोट कर सकते हैं। चेन्नई में रसम-भात, कोलकाता में माछ-भात की तर्ज पर सस्ते भंडार चलते-फिरते प्रचार के केंद्र बन जाएंगे। थोड़ा पकवान विधि में बदलाव लाकर हम चटोरी जिह्वा को भी अवसर दे सकते हैं।