उत्तराखंड में नेता प्रतिपक्ष यशपाल आर्य ने समान नागरिक संहिता विधेयक पर सवाल उठाए हैं। साथ ही उत्तराखंड सरकार पर भी निशाना साधा है। यशपाल आर्य ने सरकार पर जनता के लिए नहीं बल्कि अपने सियासी फायदे के लिए यूसीसी लाने का आरोप लगाया है। यशपाल आर्य ने कहा कि सरकार ने समान नागरिक संहिता के लिए जस्टिस रंजना प्रकाश देसाई समिति का गठन किया। 13 महिनों में इस समिति ने आपकी सरकार को रिपोर्ट सोंप दी।
समिति ने दौरे किए, लोगों से मिली, राय ली आनलाइन भी विचार लिए। लेकिन क्या कहीं पर समिति ने सार्वजनिक रुप से विभिन्न समामाजिक समूहों या राजनीतिक दलों को अपना ब्लू-प्रिंट बताया ? यह बताना समिति का कर्तव्य था कि , किन- किन कानूनों को समिति समान नागरिक संहिता में सम्मलित कर रही है। हमारे दल कांग्रेस ने दो बार समिति को पत्र लिखकर उससे मसौदा मांगा लेकिन समिति ने कोई जबाब नहीं दिया। जिस देश में अभी भी आपराधिक कानून सहित अनेकों कानून तक अभी समान नहीं हैं , वहां कोई कैसे कल्पना के आधार पर ही ‘‘समान नागरिक नागरिक संहिता’’ पर अपने विचार दे सकता है। यदि समिति ने कोई ब्लू-प्रिंट दिया होता तो अनेकों व्यवहारिक और मूल्यवान विचार सामने आते।
क्या कहता है संविधान?
अब नागरिक कानूनों याने सिविल कोड की चर्चा भारत के संविधान के परिपेक्ष्य में करना जरुरी है। संविधान में राज्य और केन्द्र के बीच कानून बनाने की शक्तियों का बंटवारा हुआ है। समान नागरिक संहिता से जुड़े सिविल कानून भारत के संविधान की समवर्ती सूची के इंट्री संख्या 5 में है। याने इन विषयों पर केन्द्र के अलावा राज्य भी कानून बना सकते हैं।
इसलिए यदि आप इसे विधेयक के रुप में लाए हैं तो आपने कोई गलती नहीं की है। लेकिन याद रखिए समवर्ती सूची में रखे विषयों पर यदि केन्द्र और राज्य के कानूनों में टकराव होता है तो भारत के संविधान के अनुच्छेद 254(1) के अनुसार केन्द्र के कानून को प्राथमिकता दी जायेगी।
अनुसूचित जनजाति की महिलाओं को हक क्यों नहीं?
पर पहले इस समान नागरिक संहिता में समान शब्द का परीक्षण तो कर लें। प्रेस के माध्यम से पता चला है कि, आपका कानून महिलाओं को लैंगिग समानता देने के उद्देश्य से लाया गया विधेयक है । यदि ऐसा है तो आप इस समानता के अधिकार से उत्तराखण्ड की अनुसूचित जनजाति की महिलाओं को क्यों दूर रख रहे हैं ? क्या प्रदेश की 4 प्रतिशत जनसंख्या से संबध रखने वाली महिलाऐं आपकी कथित लैंगिक समानता की हकदार नहीं थीं ? मेरा तो यह मानना है कि, हमारे प्रदेश की अनुसूचित जनजाति से संबध रखने वाली महिलाऐं बहुत ही प्रगतिशील हैं। उन्होंने हर क्षेत्र में सफलता के झंडे गाड़े हैं। फिर उनके साथ यह भेद-भाव क्यों किया गया। या सरकार में सम्मलित कुछ महत्वपूर्ण लोगों की विधानसभाओं में चुनाव के राजनीतिक समीकरण को बिगड़ने के डर से आपने इन महिलाओं को छोड़ दिया ? जब प्रदेश की 4 प्रतिशत जनता पर यह कानून लागू ही नहीं होगा तो फिर क्यों इस समान नागरिक संहिता कहा जा रहा है ?

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