बागेश्वर उपचुनाव से ठीक पहले उत्तराखंड कांग्रेस की रणनीति पर पानी फिर गया। जिस नेता को उम्मीवार बनाने की प्लानिंग थी, जिसका नाम पैनल में भी दिल्ली भेजा गया था वही नेता चकमा देकर बीजेपी का कार्यकर्ता बन गया। देहरादून के बीजेपी दफ्तर में बागेश्वर कांग्रेस के नेता रंजीत दास ने पाला बदला। 2022 में कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़ चुके रंजीत दास अब बीजेपी के साथ हैं। सवाल ये है कि बीजेपी उन्हें क्या देगी? मगर उससे भी बड़ा सवाल ये है कि रंजीत दास ने कांग्रेस क्यों छोड़ दी? आखिर क्यों कांग्रेस रंजीत दास को नहीं संभाल पाई? आखिर क्यों कांग्रेस चुनावी रणनीति के पहले ही चैप्टर में चूक गई? कांग्रेस का नया नेतृत्व क्यों पुरानी खामियों को दूर करने में नाकाम रहा? सवाल और भी कईं हैं जिनका पोस्टमार्टम अब कांग्रेस को ही करना है।
रंजीत दास के बयान के मायने
बीजेपी और कांग्रेस की आमने-सामने की लड़ाई वाली उत्तराखंड की सियासत में 2014 के बाद बीजेपी लगातार मजबूत होती जा रही है। 2016 में कांग्रेस की बगावत, 2017 चुनाव के नतीजे, 2019 में कांग्रेस का खाता ना खुलना और 2022 में तमाम उम्मीदों के बाद भी सत्ता तक ना पहुंचना कांग्रेस की कमजोरी दिखाता है। इतना सब होने के बाद भी कांग्रेस संभल नहीं पा रही। नेता अपनी-अपनी कुर्सी और अपना-अपना पद पाने की जुगत में लगे रहते हैं मगर संगठन कैसे मजबूत हो और पार्टी कैसे आगे बढ़े इस पर कोई रणनीति नज़र नहीं आती। जातिवाद-क्षेत्रवाद की राजनीति पार्टी को अंदरूनी तौर पर डैमेज कर रही है। इस पूरे संकट के बीच बीजेपी ज्वाइन करते ही रंजीत दास ने दावा किया कि वो धामी है पुराने फैन हैं। धामी की कार्यशैली, धामी का व्यवहार, धामी की नीतियां ना जाने रंजीत दास ने क्या-क्या गिना दिया। ऐसे में सवाल इस बात को लेकर है कि रंजीत दास जब धामी के पुराने फैन हैं तो कांग्रेस के रणनीतिकार उन्हें समझ क्यों नहीं पाए? बागेश्वर कांग्रेस की जिला इकाई क्या कर रही थी? संगठनात्मक तौर पर कहां इतना गैप रह गया कि कार्यकर्ता भी धामी के फैन अपने नेता को पहचान नहीं सके? इन सवालों के साथ ही कांग्रेस की भविष्य की सियासत के लिए भी खतरे की बड़ी घंटी है। खतरा इसलिए क्योंकि कांग्रेस को आगे बढ़ने से पहले पीछे मुड़कर देखने की ज्यादा जरूरत है। कांग्रेस की लीडरशिप को ये देखना होगा कि आखिर पार्टी के अंदर और कितने नेता हैं जो धामी के फैन हैं या हो रहे हैं। मतलब कांग्रेस को अपना घर संभालना होगा, जो नेता कांग्रेस में रहकर बीजेपी या बीजेपी के नेताओं के मुरीद हैं उनकी न सिर्फ पहचान करनी होगी बल्कि उनके पर भी कतरने होंगे। कांग्रेस को ये भी पता लगाना होगा कि लोकसभा चुनाव तक और कितने ऐसे नेता हैं जो बीजेपी में शामिल होने की लाइन में लगे हैं।
करन की बात सच हो रही!
उत्तराखंड कांग्रेस के अध्यक्ष करन माहरा ने अपने कार्यकाल के शुरुआती दौर में कहा था कि कांग्रेस में कई स्लीपर सेल हैं। जो दिखते कांग्रेसी हैं, बैठते कांग्रेसियों के साथ हैं लेकिन काम बीजेपी का करते हैं, बीजेपी के लिए करते हैं। करन ने तो कई गर्लफ्रेंड्स का भी जिक्र किया था। तब उन्होंने जल्द ही सबका खुलासा करने की बात कही थी मगर वो खुलासा हुआ नहीं। ऐसे में रंजीत दास वाले मैटर से साफ हो रहा है कि करन माहरा ने सही कहा था। रंजीत दास ने खुद स्वीकार किया कि वो धामी के फैन हैं। ऐसे हालात में अब करन की चुनौती बढ़ गई है और एक्शन लेने का वक्त भी आ गया है। करन माहरा को अगर पार्टी मजबूत करनी है तो उन्हें देहरादून ही नहीं बल्कि राज्य के अलग-अलग हिस्सों में कांग्रेस के अंदर बीजेपी के स्लीपर सेल को बाहर करना होगा। अब वो कैसे करेंगे, कब करेंगे क्या करेंगे यही उनकी लीडरशिप क्वालिटी की लिटमस टेस्ट है।
कांग्रेस में खेमों का खेल!
कांग्रेस में खेमेबाजी का खेल खुलेआम चलता है। नेता अपनी सहूलियत के हिसाब से गुट बनाते हैं, एक गुट से दूसरे गुट में जाते हैं और उसी गुटीय असंतलुलन से पार्टी का खेल खराब होता है। रंजीत दास वाले प्रकरण के बाद भी सोशल मीडिया पर तरह-तरह की चर्चा चल रही है। अलग-अलग खेमे अपने-अपने हिसाब से गोलबंदी करने में लगे हैं। निशाने पर करना माहरा हैं और उनकी नेतृत्व क्षमता है। आलाकमान ने करन को अध्यक्ष तो बनाया है मगर अध्यक्ष की कुर्सी पर कई और नेताओं की भी नज़र थी ऐसे में अब समीकरण बनाने और बिगाड़ने वाली राजनीति भी शुरू हो चुकी है। मतलब बुरी तरह डैमेज होने के बाद भी कांग्रेस में टांग खींचने और एक दूसरे को नीचा दिखाने वाली राजनीति जारी है। सवाल यही है कि कौन सा खेमा किस पर हावी है और खेमेबाजा का ये खेल खत्म कैसे होगा?
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