पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत ने लोकसभा चुनाव के नतीजों पर अपना आंकलन दिया है। हरीश रावत ने बताया है कि उत्तराखंड की पांच सीटों में से कांग्रेस कितनी सीटें जीतेगी। हरीश रावत ने अपने चुनावी अभियान और अनुभव के आधार पर 4 जून को लेकर भविष्यवाणी की है। हरीश रावत के मुताबिक कांग्रेस के खाते में कम से कम 2 सीटें आ रही हैं। अपने इस दावे को लेकर पूर्व मुख्यमंत्री ने बहुत सारे तर्क भी दिए हैं ।
आखिरी चरण के चुनाव और नतीजों से पहले हरीश रावत ने लंबी पोस्ट लिखी है जिसमें उन्होंने बताया है कि कैसे कांग्रेस ने चुनाव लड़ा और वो कौन सी 2 सीटें हैं जहां कांग्रेस की जीत तय लग रही है।
हरीश रावत ने लिखा—–#चुनावे_हरिद्वार—
18वीं लोकसभा के लिए चुनाव में उत्तराखंड की पांचों सीटों पर प्रथम चरण अर्थात 19 अप्रैल को मतदान हुआ। सारे देश के चुनावों के परिणाम 4 जून को आयेंगे, प्रथम चरण के चुनाव और सातवें चरण के मतदान के पश्चात घोषित होने वाले परिणामों के बीच में एक लंबा अंतराल! थोड़ी राहत की बात यह रही कि मुझे इस अंतराल में अपने अस्ती-पंजर अर्थात स्वास्थ्य को देखने और सुधारने का अवसर मिल गया। मगर देश में क्या हो रहा है ? देश भर में चुनाव अभियान की स्थिति को लेकर उत्सुकता बनी रही, पार्टी ने कुछ राज्यों में चुनाव प्रचारक के रूप में मुझे नामित भी किया, स्वास्थ्य के कारणों से मैं केवल छठे व सातवें चरण में दिल्ली, हरियाणा, पंजाब, चण्डीगढ़ में अपना कुछ योगदान दे पाया हूं। स्वास्थ्य लाभ के दौरान कार्यकर्ता साथी आते रहे, उनसे राज्य के चुनावों की स्थिति की भी जानकारी मिलती रही। हरिद्वार संसदीय क्षेत्र को लेकर भी वह मुझसे जानकारियों को साझा करते रहे हैं। मुझे एक अच्छी बात यह दिखाई दी कि इस बार कांग्रेस के कार्यकर्ताओं में स्वाभाविक उत्साह था। प्रचार अभियान के दौरान थोड़ी चिंता का आभास अवश्य होता था। मगर वोटिंग के दिन मतदाताओं के रूझान को लेकर कार्यकर्ता साथियों में लम्बे समय बाद उत्साह देखने को मिला। मीडिया से लेकर राजनैतिक चर्चाओं में और भाजपा के गालबाजों द्वारा कांग्रेस को कहीं भी संघर्ष में बताया ही नहीं जा रहा था, कुछ भाजपाई पांच लाख से ऊपर के अंतर से जीत का दावा कर रहे थे। साधन हीनता, दो स्थानों पर पार्टी के उम्मीदवारों की घोषणा में विलंब को देखते हुये पार्टी के अंदर भी बहुत उत्साहपूर्ण स्थिति नहीं थी। भाजपा के बड़बोले पन से त्रस्त कार्यकर्ता अवश्य अपने आपको संघर्ष के लिए संकल्पित कर रहा था। इस तथ्य का आभास चुनाव पर्यवेक्षकों को तो छोड़िए हम लोगों को भी नहीं था। कार्यकर्ताओं ने अघोषित रूप से चुनाव प्रचार में एकजुटता दिखाई। यह एकजुटता लंबे अंतराल के बाद देखने को मिली। पार्टी के जिन नेताओं ने अपेक्षित उत्साह नहीं दिखाया या चुनाव के दौरान लम्बे समय तक किंतु-परंतु से जूझते रहे, अंत भला सो भला वह भी सब कार्यकर्ताओं के साथ खड़े हो गये। सत्तारूढ़ दल और उनकी सहयोगी पार्टी व व्यक्तियों ने मतदाताओं को बांटने की बड़ी योजनाबद्ध कोशिश की। इस बार चमत्कारिक रूप से दलित वर्ग और अल्पसंख्यक वर्ग का मतदाता सारी चुनावी आशंकाओं को झूठलाते हुये कांग्रेस और इंडिया गठबंधन के पक्ष में आकर के खड़ा हुआ और उन्होंने उत्साह पूर्वक मतदान किया। इस बार 400 के पार के नारे ने इस एकजुटता को और मजबूत किया। सौभाग्य से मतदाताओं का एक बड़ा हिस्सा जो पिछले 10 वर्षों के अंदर भाजपा का वाचाल समर्थक बन गया था, ने भी इस बार या तो परिवर्तन के लिए वोट डाला या फिर वोट डालने के लिए आगे नहीं आये, मतदाताओं के इस हिस्से को सत्ता द्वारा विपक्ष को समाप्त करने की कुचेष्टाएं अच्छी नहीं लगी, उनको सत्ता के प्रकोटों से झलकता हुआ अहंकार भी पसंद नहीं आया, इस वर्ग ने जाति, धर्म, क्षेत्र सब बातों से उठकर या तो इंडिया गठबंधन के उम्मीदवारों के साथ मतदान किया या वह मतदान करने नहीं आए। यह भारतीय जनता पार्टी के लिए और उनके स्थानीय विश्लेषकों व राष्ट्रीय विश्लेषकों के लिए एक गंभीर चिंता का विषय बन गया है। प्रथम चरण के चुनाव में यह परिवर्तन का भाव अंडर करंट के रूप में था। धीरे-धीरे दूसरे और आगे के चरणों में यह परिवर्तन का भाव स्पष्ट दिखाई देने लगा है। मैं कुछ दिनों से दिल्ली, हरियाणा, चण्डीगढ़ और पंजाब के चुनाव प्रचार का हिस्सा रहा हूं और मैंने साफ-साफ देखा कि मतदाताओं का एक बड़ा हिस्सा जो हमारे साथ लंबे समय से नहीं था, इस बार इंडिया गठबंधन के उम्मीदवारों के साथ खुलकर खड़ा हो रहा है। उत्तराखंड में पांचों सीटों पर कांग्रेस कार्यकर्ताओं ने बहुत संगठित रूप में उम्मीदवारों का साथ दिया है।
हरिद्वार और पौड़ी में जीत की आस- हरीश रावत
मेरे पास कार्यकर्ता साथियों और अन्य लोगों से आ रही सूचनाएं उत्साहवर्धक हैं। हरिद्वार और पौड़ी को लेकर कुछ चर्चाएं ज्यादा हैं, मगर अल्मोड़ा, नैनीताल और टिहरी में भी कांग्रेस पार्टी अच्छी टक्कर में है, परिणाम कुछ भी हो सकते हैं बल्कि मैं आशाप्रद हूं कि इन तीन सीटों पर भी हम चमत्कारिक रूप से जीत प्राप्त करेगें। परिणाम तो ईवीएम में कैद हैं, 4 जून को ही सामने आएंगे। मगर यह सत्य है कि कांग्रेस कार्यकर्ता इन चुनावों में उत्साही दिखाई दिया है और सबसे बड़ी बात यह है कि कांग्रेस को मिलने वाले परंपरागत वोटों का एक बड़ा हिस्सा जो बसपा, भाजपा सहित दूसरी अन्य पार्टियों की तरफ चला गया था, वह वर्ग इस चुनाव में खुलकर कांग्रेस के साथ आ गया है, साथ आया ही नहीं है बल्कि उन्होंने हमारे चुनाव अभियान को गति प्रदान करने का काम भी किया है। कांग्रेस को एक अप्रत्याशित समर्थन उन मतदाताओं से भी मिला है, जो मतदाता किसी न किसी कारणवश सत्ता से नाराज थे, हम संगठित तौर पर भले ही उनको चुनाव अभियान का हिस्सा नहीं बना पाए, लेकिन मतदान में उन मतदाताओं ने भारतीय जनता पार्टी को दंडित किया है। चुनावे हरिद्वार, मेरे लिए अत्यधिक महत्वपूर्ण है। मैं एक लंबे अंतराल के बाद इस बार लोकसभा चुनाव का ध्वजवाहक बना। स्वाभाविक रूप से जब हरिद्वार में मैं चुनाव प्रचार में सक्रिय हुआ तो पूरा चुनाव मेरी चारों तरफ सिमट गया। पार्टी के उम्मीदवार ने भी अप्रत्याशित रूप से लोगों को अपनी बातों से बहुत प्रभावित किया और एक सशक्त कैंपेन पूरे चुनाव काल में उम्मीदवार द्वारा संचालित किया गया, इससे कार्यकर्ताओं को बड़ी ऊर्जा मिली, क्योंकि उम्मीदवार को लेकर के कई बातें कहीं जा रही थी। मोदी जी का परिवारवाद तो अपनी जगह पर था ही, उसके साथ-साथ मतदाताओं का एक बड़ा हिस्सा मेरे चुनाव लड़ने की भी प्रतीक्षा कर रहा था, उस मतदाता को भी श्री विरेन्द्र के पक्ष में लाना एक बड़ा काम था। मैं यह कह सकता हूं कि मतदाताओं व कार्यकर्ताओं के उस हिस्से को जिन्होंने अपनी कल्पना मेरे साथ जोड़ दी थी उनको श्री विरेन्द्र रावत अपने चुनाव प्रचार अभियान के साथ जोड़ने में सफल हुये। हरिद्वार में हमारे लेट स्टार्ट होने के बावजूद भी हम एक अच्छा चुनाव अभियान संचालित कर पाये।
सबका समर्थन खुद ही मिला- हरीश रावत
हरिद्वार में इस चुनाव अभियान के दौरान मुझे वर्ष 2009 के अपने चुनाव अभियान की याद आ गई, 2009 में भी हमने बिल्कुल साधन हीनता की स्थिति में चुनाव लड़ा था, इस बार भी करीब-करीब वही स्थिति थी। भारतीय जनता पार्टी ने और उनके ढोलचियों ने जीत का इतना बड़ा भौकाल काटकर के रखा था कि स्वाभाविक रूप से जहां से मदद मिल सकती थी, वह मदद भी नहीं मिल रही थी। उम्मीदवार द्वारा क्राउड फंडिंग के लिए अपील के बावजूद भी हम बहुत संसाधन नहीं जुटा पाये, बस इतना ही कुछ संसाधन जुटा जिससे हम कुछ झंडे खरीद पाए, कुछ अपील छपवा पाए और कुछ बस्ते में बैठने वालों के लिए चाय-पानी आदि का इंतजाम कर पाए। कार्यालय भी बहुत कम जगह खोले गये, गाड़ियां और प्रचार वाहन भी बहुत कम चल रही थी। हाँ, यह अवश्य है कि उम्मीदवार जब गांवों की तरफ निकले तो लोगों का रैला, अपने-अपने वाहनों के साथ उनके साथ खड़ा होता दिखाई दिया और यह स्थिति प्रारंभ से बन गई थी, अभी उम्मीदवार की घोषणा भी नहीं हुई थी कि जब हम नारसन बॉर्डर पर पहुंचे तो सैकड़ों गाड़ियों का काफिला हमारे साथ नारसन से आगे बड़ा, रास्ते में जाम भी लगा, लेकिन जाम के बावजूद भी मैंने एक बात महसूस की कि दिल्ली की ओर जाने वाली गाड़ियों के लोग नाराज होने की बजाय हाथ हिला रहे थे, उनमें से हो सकता है कुछ लोग मुझे जानते हों लेकिन अधिकांश लोग कांग्रेस का झंडा देखकर के हाथ हिला रहे थे। मुझे एहसास हुआ कि लोग कांग्रेस को उत्साहित करना चाहते हैं। नामांकन में भी लोग स्वस्फूरित तरीके से जुटे, कहां-कहां से लोग पुराने झंडे निकाल करके लेकर आए, मैं सब कार्यकर्ता साथियों को, अपने पार्टी के नेतागणों को बहुत धन्यवाद देना चाहता हूं कि उन्होंने साधनों का इंतजार नहीं किया, स्वस्फूरित भावना से सब लोग नामांकन में भी जुट पड़े और आगे के प्रचार अभियान में भी जुटे। रमजान का महीना था, हमारे मुस्लिम कार्यकर्ताओं के लिए यह दिन बहुत चुनौती पूर्ण होते हैं, इसलिए उनसे यह अपेक्षा करना कि आप चुनाव अभियान में आइये, यह कहना ज्यादती होती। फिर भी हमारे बहुत सारे नेतागण, कार्यकर्तागण चुनाव प्रचार के दौरान सक्रिय रूप से सम्मिलित रहे हैं और असली परिवर्तन का आभास मुझे 13-14 अप्रैल को अंबेडकर जयंती से एक दिन पहले और एक दिन बाद तक हुआ। जब मैं जगह-जगह अंबेडकर जी की मूर्तियों पर माल्यार्पण करने के लिए गया या वहां आयोजित हो रही बैठकों और कई स्थानों पर शोभायात्राओं में सम्मिलित हुआ तो मुझे सारी स्थितियां बदली-बदली सी दिखाई दी। पहले हुये चुनावों में केवल हमारे कार्यकर्ता साथी ही जुटते थे, लेकिन 13-14, 15 अप्रैल को आम और खास, दोनों जुटते हुए दिखाई दिए। प्रचार के लिए हमारे अनुसूचित वर्ग के नेताओं में बड़ा उत्साह था, हम उनके उत्साह के साथ कदमताल नहीं मिला सके। इस दौरान दलित नेता व पूर्व सांसद सहित कई विधायक और नेतागण, कांग्रेस में सम्मिलित हुये, उनके इस निर्णय से पार्टी को और शक्ति मिली। मुझे 15 अप्रैल के बाद इस बात का आभास होने लग गया कि हम विजयपथ पर आगे बढ़ सकते हैं और उम्मीदवार की बॉडी लैंग्वेज उनकी बातें, उनके भाषण, हमारे अंदर एक उत्साह पैदा कर रहे थे। श्रीमती प्रियंका गांधी जी ने रुड़की में आयोजित रैली में अपना संबोधन संवाद शैली में किया, वह शैली अद्भुत थी और अद्भुत था पब्लिक का उनके प्रति जुड़ाव। मैंने बहुत वर्षों बाद पार्टी के मुख्य वक्ता कै सुनने के लिए रैली में आए हुए आम और खास का इतना लगाव, इतनी उत्साहपूर्ण प्रतिक्रिया देखी।
प्रियंका की रैली निर्णायक- हरीश रावत
प्रियंका जी की रैली के बाद मैं इस बात से आश्वस्त हो गया था कि हम संघर्ष में हैं और विजयपथ की ओर बढ़ रहे हैं। मुझे इस चुनाव में बहुत सारे सुखद अनुभव हुए, साथियों, सहयोगियों, कार्यकर्ताओं ने जिस प्रकार से निस्वार्थ भाव से काम किया और स्थिति की चुनौती को अपने कंधों पर लेकर के आगे बढ़े, यह स्थिति 2014 के बाद पहली बार देखने को मिली। 2022 में जरूर इसका थोड़ा आभास मुझको हुआ था, इस बार पार्टी में एक जुटता भी दिखाई दी, नेताओं में भी एकजुटता दिखाई दी और कार्यकर्ताओं में मैं क्यों पीछे रहूं की भावना दिखाई दी।
हमारे सामने कार्यकर्ताओं के इस जोश को आगे भी बनाए रखने की एक बड़ी भारी चुनौती होगी और इतनी बड़ी चुनौती हमारे सामने उन सामाजिक समूहों को जो उत्साहपूर्ण तरीके से इस बार कांग्रेस के साथ जुटे हैं उनको भी जोड़े रखने की है। कुछ लोग संविधान और लोकतंत्र की रक्षा के लिए जुटे हैं, कुछ विधान व आरक्षण की रक्षा के लिए जुटे हैं, कुछ लोग युवाओं के भविष्य के साथ इस सरकार द्वारा जो खिलवाड़ किया जा रहा है उस खिलवाड़ से आक्रोशित होकर के जुटे हैं, महंगाई भी एक बड़ा कारण रही है, कुव्यवस्था, गांवों में अस्त-व्यस्त पड़ा हुआ विकास, बढ़ता हुआ भ्रष्टाचार, किसान और महिलाओं का सम्मान, यह सारे ऐसे मुद्दे थे जो चुनाव प्रचार के दौरान उठे और कांग्रेस को इससे बड़ी मदद मिली। मुझे बड़ी उम्मीद थी कि हमारे किसान वर्ग के लोग उमड़-घुमड़ करके प्रारंभ से ही हमारे साथ आकर के खड़े होंगे। क्योंकि किसान पिछले 5 से अधिक वर्षों से निरंतर इस सरकार की कुनीतियों के खिलाफ लड़ रहा है और मैं लगातार इस लड़ाई में उनके साथ खड़ा रहा हूं। दलित बहन और भाइयों ने मेरे इतने वर्षों की समर्पित सेवा का सम्मान किया, अल्पसंख्यक बहन-भाइयों ने सौहार्द और सामाजिक सद्भावना को लेकर मेरी सोच को सराहा और वोटों के बटवारे की जो साजिश रची गई थी, उसे विफल किया। सब लोग एकजुट होकर कांग्रेस और उम्मीदवार के साथ आकर के खड़े हुए। मगर मुझे किसान वर्ग और कुछ ऐसे सामाजिक समूहों जिनके लिए मैं समर्पित भाव से काम करता रहा और आगे भी करता रहूंगा, उन्होंने मुझे थोड़ा निराश किया। उत्तराखंड में कुछ ऐसे छोटे-छोटे सामाजिक समूह हैं जिनको पहली बार मैंने ही राजनीतिक अस्तित्व को सम्मान दिया और उन्हें सत्ता व संगठन में भागीदारी दी। आप गंगा के किनारे घाटों से लेकर के चौराहों के नामकरण तक या जगह-जगह लगी हुई मूर्तियां आदि को देखकर के इस बात का अंदाज लगा सकते हैं कि हमने और हमारी सरकार ने इस तथ्य को स्वीकार किया कि यह उत्तराखंड, एक छोटा भारत है और इस भारत में सभी वर्गों के लोग, सभी सामाजिक समूह के लोग रहते हैं और उनकी अपनी सोच व अपनी मान्यताएं हैं, उनकी मान्यताओं का सम्मान किया जाना चाहिए। हमने जितना हो सका इन वर्गों को सरकार में पद देकर नवाजा, कुछ वर्गों के आर्थिक हितों के लिए जो कदम उत्तर प्रदेश और बिहार में नहीं उठाये गये वह कदम हमने उठाए, चाहे नदियों और तालाबों, अच्छी मिट्टी पर प्रथम अधिकार के सवाल हों, हमने उन्हें कानूनी अधिकार दिया, उनको आर्थिक विकास की मुख्य धारा में लाने के लिए योजनागत तरीके से जिन पेशों की तरफ उनकी स्वाभाविक रुचि थी उन कार्यों/ट्रेड्स को सरकार की तरफ से न केवल संरक्षण दिया बल्कि आगे बढ़ाया और माइक्रो लेवल पर आर्थिक विकास का खाका खींचा और उन्हें भागीदार बनाया, हमने अपनी समावेशी विकास की नीति में किसी भी सामाजिक समूह को नहीं छोड़ा। कुछ लोग इस चुनाव में हमारे साथ आये, लेकिन अब भी इन वर्गों की भाजपा के प्रति रुचि बनी हुई है, चाहे पिछले साढ़े सात वर्षों में भाजपा सरकार ने इन वर्गों की सतत् उपेक्षा की है। किसान वर्ग के लोगों के साथ मेरा निरंतर गहरा जुड़ाव रहा है, जब भी इस वर्ग की केंद्र और राज्य सरकार ने उपेक्षा की है या उनके सम्मान को चोट पहुंचाई है तो मैंने उनके लिए आवाज उठाई है। इधर मेरे मात्र पिछले 3 साल का यदि कोई मेरा रिकॉर्ड देखे तो सड़क पर जितने धरने प्रदर्शन किए हैं, यात्राएं निकाली हैं, विधानसभा भवन, मुख्यमंत्री आवास कूच से लेकर के उपवास आदि रखे हैं, उनमें से अधिकांश किसान वर्ग से संबंधित हैं। मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि किसानों के सवालों पर मैं किसान संगठनों से भी अधिक सक्रिय रहा हूं और सक्रियता के साथ उनकी लड़ाई लड़ने का काम किया है। मुझे आश्चर्य होता है कि जो लोग साल भर तो भाजपा और सरकार की आलोचना करते हैं, उनके खिलाफ बयान देते हैं लेकिन जिस समय मतदान का समय आता है तो उस समय भाजपा के साथ खड़े हो जाते हैं। मैं उनकी इस सोच और राजनीति को नहीं समझ पाया हूं। हमने कभी किसानों की हित की लड़ाई में यह नहीं सोचा कि कौन कह रहा है या कौन नहीं कह रहा है? दिल्ली क्या कह रहा है या देहरादून क्या कह रहा है? हमने हमेशा झंडा उठाया और किसान के साथ खड़े हुए, हमने हमेशा अपना मोबाइल उठाया है और किसान के साथ अपनी एक जुटता जाहिर की है, हमने गांधी मूर्ति हो, चीनी मिल का गेट हो या सड़क नापना हो, ट्रैक्टर से लेकर के पदयात्रा तक करने में कभी कोई कोताही नहीं की, कभी हमने यह नहीं देखा कि किसने आवाह्न किया, किसने कहा, किसने नहीं कहा! हमने केवल किसान को देखा, चाहे वह किसान मैदान का हो या पहाड़ का हो, मैंने दोनों से बराबर का जुड़ाव रखा है और उनकी प्रमुख आर्थिकी को हमेशा पूरी शक्ति के साथ समर्थन दिया है, गन्ने का मामला हो या मडुवे का, गुड़ का मामला हो या गेठी का मामला हो, चाहे दुग्ध उत्पादन का मामला हो या बकरी पालन का, तालाब की मछली पालन का मामला हो या गौ पालन का, कोई ऐसा मामला नहीं है जिसमें हरीश रावत ने कभी कोई हिचकिचाहट की हो, हमारी सरकार ने दुग्ध उत्पादकों को चार रुपया प्रति लीटर समस्त दुग्ध पालन व्यवसाय को एक नई ऊंचाई प्रदान की। कहां राज्य की एक दुग्ध समिति लाभ में थी, हमारे इस निर्णय के बाद आधा दर्जन दुग्ध समितियां लाभ में आ गई, आज भी लगभग 70,000 परिवारों का दुग्ध पालन से व्यावसायिक है। सांसद के रूप में भी पूरी शक्ति और पूरे समर्पण के साथ मैं अपने मतदाता किसान भाइयों के साथ जुड़ा रहा। 2012 में भारत सरकार के कृषि मंत्रालय ने फेयर एंड रिमुनरेटिव प्राइस के निर्धारण करने वाले फार्मूले में थोड़ा बदलाव किया, जिसका सीधा नुकसान उत्तरी भारत के गन्ना उत्पादक किसानों को हो रहा था और महाराष्ट्र के गन्ना उत्पादक सहकारी समितियों को उसका लाभ मिल रहा था, मैंने इस बदलाव के खिलाफ आवाज उठाई, अंततः प्रधानमंत्री जी के हस्तक्षेप के बाद बदलाव रोक दिया गया। मैंने मुख्यमंत्री के रूप में गन्ने और मडुवा, दोनों के आत्म स्वाभिमान की लड़ाई को मैंने समान महत्व दिया और उनके स्वाभिमान को बुलंदी की तरफ लेकर के गया। यदि देश के अंदर सर्वाधिक गन्ना खरीद मूल्य उत्तराखंड में था, तो समय पर पेमेंट का भी हमने रिकॉर्ड बनाया। उसी तर्ज पर मडुवे को ऊंचाई दी, मगर मुझे दर्द है कि किसान वर्ग हमको वोट डालने के मामले में बटा रहता है। हम भी मंथन करेंगे कि कहां हमसे चूक हुई, लेकिन मैं यह भी अपेक्षा करता हूं कि किसान वर्ग से जुड़े हुए जो हमारे नेतागण हैं वह भी इस बिन्दु पर अवश्य मनन करें और इस तथ्य को उनको किसान भाइयों के सामने उठाना चाहिए, उनसे बातचीत करनी चाहिए। जीवन के अस्थानचल काल में मेरे मन में भाव आता है कि मैं एक अंजलि में इस धरती की मिट्टी लेकर उससे पूछूं कि क्या कारण है कि किसानों ने मुझे केवल 1989 और 2009 के संघर्ष के क्षणों को छोड़ दें तो मेरा कभी भी खुलकर साथ नहीं दिया! मैं संघर्ष की आवाज हूं। संघर्ष की आवाज को यदि आप समय पर सहारा नहीं देंगे तो फिर संघर्ष करने वाले लोग पृष्ठभूमि में चले जाएंगे, मेरे साथ उम्र की भी सीमा है, लेकिन मैंने उस सीमा को तोड़ करके भी हमेशा संघर्ष किया है, किसानों के हित में, गरीबों व दलितों, कमजोरों व पिछड़ों के हित में, अल्पसंख्यकों के हित में, विकास व सामाजिक न्याय के हित में संघर्ष करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। मैं बहुत संकोच में था कि अपने दिल की बात आपसे साझा करूं या न करूं! अंततः मैंने सोचा कि किसान वर्गों व छोटे-छोटे सामाजिक समूहों के हित में यह आवश्यक है कि मैं अपने दिल के अंदर उमड़-घुमड़ रहे सत्य को उनके साथ साझा करूं।
भावों के लिए क्षमा करें, राम-राम!
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