उत्तराखंड का विकास कैसे हो? पहाड़ से पलायन कैसे रुके इसे लेकर पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत ने एक बार फिर अहम सुझाव दिये हैं। हरीश रावत ने लिखा है “हम छोटे राज्य हैं। यदि राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय फलक पर हमें अपना स्थान बनाना है तो हमें कुछ बुनियादी आवश्यकताओं को अत्यधिक महत्व देना पड़ेगा। शिक्षा और प्रौद्योगिकी का समावेश कर हम इस दिशा में मजबूत कदम आगे बढ़ा सकते हैं। केरल सहित दक्षिण के राज्यों ने इस दिशा में प्रारंभ से ही फोकस किया है। इधर राजस्थान भी इस दिशा में तेजी से आगे बढ़ रहा है। शिक्षा और तकनीकी शिक्षा के विस्तार व गुणवत्तायुक्त बनाये जाने की दिशा में कई चुनौतियां खड़ी हैं। सबसे पहली चुनौती शैक्षिक वातावरण तैयार करने की और दूसरी चुनौती संसाधन लूटने की है। राज्य की जीडीपी का हमें एक बड़ा हिस्सा, इस पवित्र कार्य के लिए देना पड़ेगा।”
रोजगार का समाधान जरूरी
हरीश रावत ने कहा कि उत्तराखंड, राज्य निर्माण से पहले भी अपने रोजगार का समाधान सरकारी, अर्ध सरकारी और निजी नौकरियों में ढूंढता था। यहां तक कि देश की आजादी से पहले भी हमारे बुजुर्गों का शिक्षा पर ध्यान था। अंग्रेजों से लड़ते-लड़ते हमारे उत्तराखंड के बुजुर्गों ने यह सीख लिया कि छोटे से इंग्लैंड ने इतनी तरक्की, इतनी शक्ति, सामर्थ्य, सब इसलिये हासिल किया क्योंकि उन्होंने अन्य यूरोपीयन देशों की तुलना में शिक्षा पर बड़ा जोर दिया। फ्रांस और जर्मन से भी अंग्रेज इस क्षेत्र में बहुत आगे रहे। पुरानी सभ्यता के केंद्र यूनान और रोम आदि से भी इंग्लैंड बहुत आगे रहा। उनकी सामर्थ्य बढ़ती गई और दुनिया में उनका फैलाव होता गया। आप अंदाज लगाइए जितने अंग्रेज आज इंग्लैंड, आयरलैंड, स्कॉटलैंड में नहीं हैं उससे ज्यादा अंग्रेज बाहर हैं, दूसरे देशों में हैं, कई देशों की व्यवस्था भी उनके हाथ में है। इसका स्पष्ट अर्थ है कि इंग्लैंड के रहने वालों ने अपनी आजीविका और विकास का रास्ता शिक्षा व तकनीकी शिक्षा के माध्यम से बनाया और दूसरों को पीछे छोड़ा। हमारे देश में भी कुछ अंग्रेजों के नाम बड़े सम्मान से लिए जाते हैं। उन्होंने पहाड़ों में भी शिक्षण संस्थान खोलने में पहल की, कुछ के नाम पर तो उत्तराखंड के पहाड़ी क्षेत्रों में आज भी इंटर कॉलेज आदि के नाम हैं, जैसे अल्मोड़ा का रैमजे इंटर कॉलेज इसका उदाहरण है और लोग आज भी बहुत भावपूर्ण तरीके से शिक्षा में उनके योगदान को याद करते हैं। हमारे उस समय के पहाड़ों के लोगों ने देश की आजादी की लड़ाई लड़ते-लड़ते शिक्षा के क्षेत्र में भी बहुत काम किया, वन पंचायतें गठित की। कहीं इनको लठ्ठ पंचायत भी कहा जाता था। इनकी आमदनी व चंदे से प्राइवेट शिक्षण संस्थाएं खड़ी की। यह सिलसिला केवल पहाड़ी जिलों में नहीं है, आप हरिद्वार में भी जाइए तो ऐसी कई शिक्षक संस्थाएं हैं जिनके साथ उस समय की आजादी के नायक जुड़े रहे। देश की आजादी के बाद कांग्रेस के एक बड़े हिस्से ने गांधी के रचनात्मक कार्यकर्मों को अपने हाथ में लिया। रोजगार देने के लिए कई लोगों ने खादी आश्रम खोले, लोगों को सूत आदि कातने और वस्त्र बनाने का प्रशिक्षण दिया। कुछ लोगों ने दूसरे रचनात्मक उद्योगों को स्थापित किया, जैसे लीसा व कास्ट कला उद्योग। अधिकांश नेतागण गले में झोला डालकर छोटे-छोटे जत्थे बनाकर लोगों से चंदा मांगकर शिक्षण संस्थाएं खड़ी करने में लगे। मडुवे की नाली लेते थे लोग फिर उसकी बिक्री से जो पैसा निकलता था उससे शिक्षण संस्था को संचालन का काम करते थे। कई लोग वॉलंटियर के तौर पर पढ़ाने का काम भी करते थे। श्रमदान उस समय एक बड़ा जनांदोलन था, गांव के गांव आते थे, जमीन के समतलीकरण, पत्थर निकालने व ढोने का काम करते थे, जंगलों से लकड़ी जिसको दार कहते थे (चीड़ के वृक्ष काट कर इमारती लकड़ी तैयार की जाती थी) उसको लेकर आते थे। कोशिश यह होती थी कि जितना काम हो जाए, वह श्रम से हो जाए, पैसों का उपयोग कम से कम हो। उस समय संस्था की मान्यता के लिए भी पैसा जमा करना पड़ता था, बहुत नाम मात्र के वेतन पर स्थानीय पढ़े-लिखे लोग शिक्षक रखे जाते थे। उत्तराखंड की शिक्षा और आज के उत्तराखंड को बनाने में उन महापुरूषों जिनको मैं कर्म पुरुष-महापुरुष मानता हूं, की अभूतपूर्व गाथा है, प्रत्येक धार और गाड़ के विकास की गाथा है, कभी समय मिला तो उस पर एक ग्रंथ लिख सकता हूं। खेल के मैदान प्रायः सभी स्कूलों में श्रमदान से ही बनते थे। उस समय लोग सरकार की ओर नहीं देखे थे बल्कि अपने हाथों और क्षमता का उपयोग सर्वजन हिताय करते थे। शिक्षा पर उनके फोकस का ही परिणाम था कि उत्तर प्रदेश जैसे विशाल राज्य की राजकीय सेवाओं में हमारा प्रतिशत बहुत बड़ा था। जब आरक्षण लागू हुआ तो हमारे पर्वतीय अंचल के बहुत सारे शिल्पकार वर्ग के भाइयों को राजकीय सेवाओं में बड़े-बड़े पदों पर जाने का अवसर मिला। मुझे ठीक से याद नहीं शायद बहादुर राम टम्टा पहले आईएएस थे। जब भोटिया, जौनसारी, थारू व बोक्सा वर्ग को जनजाति का दर्जा मिला तो इन्होंने भी काफी तरक्की की। आप अंदाज लगाइए अभी तक उत्तराखंड के दो मुख्य सचिव हमारे भोटिया जनजाति के लोग हो चुके हैं, इन वर्गों को भी आरक्षण का लाभ तभी मिल पाया जब इन्होंने शिक्षा ग्रहण की। दूर दराज अंचलों में जहां व्यक्ति के लिए स्वंय पहुंचना कठिन था, वहां लोगों ने बड़े-बड़े स्कूल, हाई स्कूल, इंटर कॉलेज स्थापित किए और यह उनकी प्रेरणा थी कि लड़कियों की शिक्षा को भी उस समय बराबर बढ़ावा दिया गया। एक समय ऐसा था कि जब साक्षरता के क्षेत्र में त्रिवेन्द्रम के बाद दूसरे और तीसरे स्थान के लिए अल्मोड़ा व पौड़ी में कंपटीशन रहता था। यही कारण है कि इन क्षेत्रों का एक बड़ा हिस्सा आज भी देश के बड़े-बड़े शहरों में कार्यरत है। हिमाचल की राजकीय सेवाओं में बहुत लोग गए। हिमाचल के अस्तित्व में आने से लेकर केंद्र शासित राज्य तक की यात्रा में उत्तराखंड के लोग वहां की प्रशासनिक सेवा में बड़ी मात्रा में जुड़े। टिहरी क्षेत्र में थोड़ा सा शिक्षा का प्रसार राजशाही के कारण कम हुआ। लेकिन वहां के स्वतंत्रता संग्राम सेनानी भी शिक्षण संस्थाएं खड़ी करने में बहुत पीछे नहीं रहे। मैंने इतनी लंबी भूमिका इसलिए बांधी है कि आज शिक्षा की स्थिति उत्तराखंड में चिंताजनक है। राज्य बनने के बाद दक्ष मानव शक्ति तैयार करने का उत्तर दायित्व एक के बाद एक निर्वाचित सरकार को लेना चाहिए था और शिक्षा में गुणवत्तता एक राज्य व्यापी आंदोलन बनना चाहिये था, हम ऐसा नहीं कर पाए। शिक्षा संस्थाएं खूब खुली बल्कि एक बार सरकारी करण जिसको प्रांतीय करण कहा जाता था, वह राजनीतिक अभियान बन गया। प्रबंधन मंडल के मेहनत से बने हुए शिक्षण संस्थाओं का हम प्रांतीय करण करते थे और उसका लाभ शिक्षक बंधुओं को जरूर मिला, परंतु शिक्षा को नहीं मिल पाया। शिक्षा में एक निरीक्षणीय तत्व था प्रबंधन मंडल का, उसके हटने के बाद वहां से शिक्षा का शरण प्रारंभ हुआ, आज दूसरे क्षेत्रों व राज्यों में शिक्षा का प्रसार होने से सरकारी नौकरियों में चुनौतियां बढ़ गई हैं। यदि उत्तर प्रदेश में 8 पहाड़ी जिलों के जनसंख्या अनुपात को देखा जाए तो उस समय 8 गुना से भी ज्यादा लोग उत्तर प्रदेश की राजकीय सेवाओं में थे और बड़े-बड़े पदों पर थे। पहाड़ों के अभावग्रस्त शिक्षण संस्थानों में पढ़ कर के ही लोग मुख्य सचिव से लेकर कैबिनेट सचिव तक पहुंचे।
क्वालिटी एजुकेशन
आज की पीढ़ी को अभी तो शिक्षण संस्थानों में आ रही गिरावट का प्रभाव कमतर दिखाई दे रहा है। अगले 10 वर्षों के बाद स्थिति विकट से विकटतर होती जाएगी। एक समय आएगा जब उच्च शिक्षित छात्र-छात्राओं की संख्या बहुत बड़ी होगी। मगर अनुपात में काम नहीं होंगे। हमें एक कॉम्पिटेटिव एज शिक्षा को देना चाहिए था, हमें दक्षता और टेक्नोलॉजी का समावेश करना चाहिए था, शिक्षा के किसी भी क्षेत्र में हम ऐसा नहीं कर पाए। ऐसा नहीं है कि राज्य बनने के बाद जो सरकारें आई उन्होंने चिंता नहीं की, चिंता सबने की। 2014 से 2016 तक हमें अवसर मिला, हमारे समय में भी हमने कई बुनियादी सुधार किए। दूर-दूर हमने डिग्री कॉलेजेज भी खोले ताकि महिला शिक्षा का प्रसार हो सके और मैं देखता हूं कि दूरदराज के डिग्री कॉलेजेजों में आज लड़कों से लड़कियों की संख्या अधिक है। हमने पॉलिटेक्निक, आईटीआई, इंजीनियरिंग कॉलेज, नर्सिंग कॉलेज, इंटर कॉलेज, हाई स्कूल मन माफी तरीके से जिसने जहां कहा, इशारा भर कर दिया तो खोलने में कोई हिचकिचाहट नहीं दिखाई। यहां तक की आज जितने नए मेडिकल कॉलेजेज बन रहे हैं सब उसी टाइम के स्वीकृत हैं। एक कोटद्वार में प्रस्तावित मेडिकल कॉलेज भविष्य जरा सा लटका दिखाई दे रहा है। लेकिन उसके लिए भी 4 करोड़ रूपया, स्थान का चयन आदि सब हम तय करके गए थे। भगवानपुर को आज की सरकार ने खिसका कर हरिद्वार कर दिया है। मॉडल हाई स्कूल और मॉडल इंटर कॉलेज के साथ-२ कांग्रेस की सरकारों ने राजीव नवोदय विद्यालय खोले और बोर्डिंग स्कूलों की श्रृंखला को आगे बढ़ाते हुए राजीव अभिनव स्कूल खोले। जब शिक्षकों की कमी की बात आई तो हमने एक और क्रांतिकारी कदम उठाया। हमने ब्लॉक स्तर को सलेक्शन का बेस बनाया ताकि दूरदराज के स्कूलों में भी शिक्षक काम कर सकें। क्योंकि हम देख रहे थे कॉम्पिटेटिव एग्जाम के जरिए पब्लिक सर्विसेज कमिशन के माध्यम से चयनित लोग राजकीय सेवक के रूप में प्राप्त सुरक्षा का सहारा लेकर के दूर दराज के क्षेत्रों में जा नहीं रहे हैं, ग्रामीण क्षेत्रों में नियुक्तियां होती थी पद खाली रह जाते थे। कई तरह की व्याधियों जिसमें अटैचमेंट की व्याधि आदि शिक्षा विभाग को समस्या ग्रस्त कर दिया था। स्कूलों, कॉलेजों में कई तरीके के शिक्षक संबोधन थे, एक श्रेणी अतिथि शिक्षकों की हमने भी जोड़ी। मगर हमने जोड़ते वक्त सलेक्शन का बेस कंपटीशन रखा और कंपटीशन का आधार हमने ब्लॉक को बनाया ताकि नियुक्त व्यक्ति इस बात की मांग न कर सके कि मैं, कहीं शहरीय क्षेत्रों में नियुक्त किया जाऊं। वह उस ब्लॉक में जहां की वैकेंसी के अगेंस्ट में चयनित होता था, वही देनी होती थी। एका-एक लगा कि शिक्षकों की कमी दूर हो रही है, हमने अलग-अलग संबोधनों वाले शिक्षकों को एल.टी. या लेक्चर का सामूहिक संबोधन प्रदान किया। इन सब कदमों को उठाये जाने के बावजूद भी शिक्षक के क्षेत्र में एक अनिश्चितता बनी हुई है, यह अनिश्चितता व्याधि का रूप लेती जा रही है। आज पुनः प्रधानाचार्य के पद रिक्त पड़े हुए हैं, यही स्थिति आईटीआई और पॉलीटेक्निक्स में भी है। कैसे इन व्याधियों का आज की सरकार उपचार करेगी, मैं नहीं जानता हूं। आज की सरकार की सारी उछल-कूद व दावों के बावजूद दूर-दराज के ग्रामीण अंचलों में शिक्षकों का अभाव है। गणित, विज्ञान, अंग्रेजी कई विषयों के शिक्षक अप्रयाप्य हैं। सामान्य शिक्षा के क्षेत्र में निजी स्कूल कुछ सीमा तक शिक्षा की आवश्यकता की पूर्ति कर रहे हैं। परंतु तकनीकी शिक्षा में तो ऐसा भी नहीं है। यदि कुछ संस्थाएं और संस्थान हैं तो वह बड़े नगरीय क्षेत्र में हैं, जहां सामान्य वर्ग के छात्र-छात्राओं के लिए शिक्षा लेना संभव नहीं है। यूं ऐसे कई उदाहरण हैं जहां सरकारी स्कूल बहुत अच्छा काम कर रहे हैं, जैसे कपकोट आदर्श विद्यालय, वह किसी प्राइवेट स्कूल से कम नहीं है उसकी ज्यादा डिमांड है और वहां के छात्र-छात्राएं आगे के कॉम्पिटेटिव एग्जाम और अन्य क्षेत्रों में, जिसमें सैनिक स्कूल भी है वहां के लिए चयनित हो रहे हैं, मगर यह सब संभव है शिक्षकों के जुनून पर। शिक्षकों की भर्ती को लेकर असमंजस्तापूर्ण स्थिति और चिंता बढ़ा रही है। शिक्षा और मेडिकल में वॉक इन भर्ती बोर्ड के प्रयोग को और विस्तारित करने की आवश्यकता है। तकनीकी शिक्षा का तो ऐसा लगता है जैसे इस विषय को सरकार ने अपने एजेंडे से बाहर कर दिया है! कई पॉलिटेक्निक, आईटीआईज हमने खोले थे उनमें आधे बंद कर दिए गए हैं। इंजीनियरिंग कॉलेज कुछ घिसे-पिटे विषयों के साथ लड़खड़ाते हुए चल रहे हैं। उत्तराखंड के लिए पहली मौलिक आवश्यकता है, शिक्षा व तकनीकी शिक्षा के क्षेत्र में लगातार आ रही गिरावट को रोकना। इस कार्य हेतु समस्याओं का चार्ट बनाकर उनका समयबद्ध समाधान ढूंढना पड़ेगा। सरकार यदि नहीं ढूंढती है तो इस आवश्यकता को राज्य की प्रमुखतम् आवश्यकता बनाने का जन अभियान छेड़ना पड़ेगा। आखिर हम हैं तो उन्हीं उत्तराखंडियों की संतान जिन्होंने अभावों में भी शिक्षा की लौह जलाई थी और शानदार तरीके से जलाकर के रखी थी। एक बड़ा प्रश्न चिन्ह है कि क्या हम यहां से संभलेंगे और उठकर आगे बढ़ेंगे? हम पहले ही एक समस्या ग्रस्त राज्य बनने की ओर अग्रसर हैं। नौजवानों के पास डिग्रियां होंगी, मगर क्वालिटी एजुकेशन के अभाव में वह कॉम्पिटेटिव नहीं हो पाएंगे, वह प्रतिस्पर्धी नहीं हो पाएंगे। आज के तकनीकी युग में यदि आप प्रतिस्पर्धी नहीं हैं तो फिर आपकी पूछ नहीं है। हमको प्रतिस्पर्धी शिक्षा के लिए प्रतिस्पर्धी शिक्षण संस्थाओं को तैयार करना पड़ेगा और उसी तरीके का प्रबंधन तंत्र बनाना पड़ेगा, कुछ बुनियादी मौलिक सुधार अपनी सोच और सम्पूर्ण शिक्षा प्रणाली में भी लाने पड़ेंगे।
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