28 June 2025

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परेशानी, मनमानी, सरकार कैसे चला रहे धामी?

परेशानी, मनमानी, सरकार कैसे चला रहे धामी?

उत्तराखंड में चौमास (बरसात) का सीजन हर साल चुनौती बनकर आता है। इस साल भी यही हो रहा है, पहाड़ी इलाकों में बारिश के साथ-साथ भूस्खलन कहर बरपा रहा है तो मैदानी इलाकों में उफनती नदियां डरा रही हैं।

मोरी से मुनस्यारी तक और चंपावत से चमोली तक, पिथौरागढ़ से लेकर पीपलकोटी तक, बागेश्वर से रुद्रप्रयाग तक हर जगह एक जैसे हालात हैं। हरिद्वार, ऊधमसिंहनगर, देहरादून, हल्द्वानी में भी हालात वही हैं। लक्सर, रुड़की में बाढ़ ने जिस तरह बर्बादी मचाई है वो दिक्कत भी दर्द देने वाली है। अलग-अलग जगहों की एक जैसी आफत के बीच सरकार की नीति और नीयत पर सबकी निगाहें हैं। राज्य की जनता देख रही है कैसे कुदरत के कहर के बीच राहत के लिए कदम उठाए जा रहे हैं, क्या कदम उठाए जा रहे हैं और धरातल पर उनका कितना असर हो रहा है?

धामी की कितनी धमक?

पुष्कर सिंह धामी जिन्हें बीजेपी धाकड़ धामी भी कहती है। प्रदेश का मुखिया होने के नाते हर अच्छे-बुरे की जिम्मेदारी, जवाबदेही धामी की है। सरकार क्या करेगी, कब करेगी, कैसे करेगी ये डिसीजन लेना भी धामी का ही काम है। अपनी जिम्मेदारी समझते हुए वो लगातार काम करते हुए दिखाई दे रहे हैं। कभी ग्राउंड पर तो कभी दफ्तर में बैठकर हालात का जायजा लेते हैं। औसतन 1 दिन छोड़कर आपदा कंट्रोल रूम पहुंचकर भी पूरे राज्य में आपदा के हालात की मॉनिटरिंग करते हैं। अधिकारियों के साथ ऑनलाइन, ऑफलाइन मीटिंग में भी कसर नहीं छोड़ते। हर रोज अफसरों को निर्देश देते हैं, अखबार और टीवी की सुर्खियों में भी बने रहते हैं। मगर सवाल ये है कि राज्य के मुख्यमंत्री को 1 ही बात के लिए हर 24 घंटे में आदेश और निर्देश जारी करने की नौबत क्यों आ रही है? आखिर क्यों सीएम की एक बार कही हुई बात को संजीदगी से नहीं लिया जा रहा? क्यों हर दिन मुख्यमंत्री अफसरों को जिम्मेदारी याद दिलाने को मजबूर हैं? इसका सीधा मतलब तो यही है कि अधिकारी या तो बातों को समझ नहीं रहे या सुन ही नहीं रहे? दूसरा मतलब ये भी है कि नौकरशाही इतनी हावी हो चुकी है कि सीएम की बातों के एक कान से सुनकर दूसरे कान से निकाल दिया जा रहा है। शायद इसीलिए सीएम हर रोज सुबह उठकर अफसरों को उनका काम याद दिलाते हैं ताकि कोई अनहोनी हो जाए तो मामला जल्दी ठीक किया जा सके। सीएम अपनी सक्रियता दिखा रहे हैं अच्छी बात है लेकिन अगर उनकी बातों को अफसर अनसुना कर रहे हैं तो फायदा क्या है? यानि धाकड़ वाली धमक में कुछ तो खामी है जो अफसरशाही कंट्रोल नहीं हो पा रही?

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मंत्री और जिम्मेदारी

धामी की मौजूदा कैबिनेट में सतपाल महाराज, प्रेमचंद अग्रवाल, गणेश जोशी, सुबोध उनियाल, धन सिंह रावत, रेखा आर्य और सौरभ बहुगुणा कुल 7 मंत्री हैं। 4 पद खाली हैं, कब तक खाली रहेंगे ये भी कोई नहीं जानता। मगर सवाल ये है कि क्या मंत्री अपनी जिम्मेदारी निभा रहे हैं? क्या सातों मंत्री सही ट्रैक पर हैं? क्या मुसीबत के इस दौर में जनता को मंत्रियों की ओर से कोई राहत मिल पा रही है? इसका जवाब बहुत ज्यादा मुश्किल नहीं है। जिस तरीके से मंत्री आपदा आने के बाद नदारद रहे और जिस तरह विपक्ष को हमला बोलने का मौका मिला उससे सरकार की ही किरकिरी हुई। नौबत यहां तक आ गई कि धामी को अपने मंत्रियों से अपील करनी पड़ी। अपील अपने-अपने प्रभार वाले जिलों में जाने और जनता के बीच दिखने की, अपील आपदा प्रबंधन पर ध्यान देने और लोगों की मदद करने की। ऐसे में सवाल ये उठता है कि क्या उत्तराखंड में सारी अकाउंटबिलिटी सिर्फ मुख्यमंत्री की ही है? क्या मंत्रियों की कोई जवाबदेही, कोई जिम्मेदारी नहीं? क्या मंत्रियों को सिर्फ कुर्सी पर बैठने और मलाई खाने के लिए ओहदा दिया गया है? आखिर उत्तराखंड सरकार में कैसा वर्क कल्चर है? आखिर क्यों मंत्री सीएम से पहले जनता के बीच नहीं जाते? आखिर क्यों कोई भी मंत्री आपदा आते ही अपने प्रभार वाले जिलों में नहीं दिखा? सवाल ये भी है कि क्या सीएम धामी को मंत्री भी अफसरों की तरह ही ट्रीट कर रहे हैं? अगर ऐसा है तो मामला बड़ा गंभीर है और उसका खामियाजा जनता को ही भुगतना पड़ रहा है।

 

सरकार, सिस्टम और सवाल?

आपदा से हालत बिगड़े हैं, जनता परेशानी में है लेकिन सवाल ये है कि धामी की अपील के बाद भी मंत्री सुस्त क्यों पड़े रहे। हरिद्वार जिले के प्रभारी मंत्री सतपाल महाराज बड़ी मुश्किल से 18 जुलाई को फील्ड में उतरे और अपने प्रभार वाले हरिद्वार पहुंचे मगर यहां भी वो सिर्फ भीमगौड़ा बैराज और चंद इलाकों का जायजा लेकर वापस देहरादून लौट गए। जिस लक्सर, खानपुर और रुड़की में बाढ़ से तबाही हुई है वहां जाना महाराज ने जरूरी नहीं समझा, जबकि इस वक्त सरकारी मरहम की सबसे ज्यादा जरूरत बाढ़ प्रभावितों को ही है। ये भी सच है कि सरकारी मदद काफी नहीं होती लेकिन जनता अगर मंत्री को अपने बीच देखती तो कम से कम थोड़ा सा भरोसा ही जग जाता मगर सतपाल महाराज ने अपने हिसाब से रूट तय किया और कोरम पूरा कर लिया।

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धन सिंह रावत जरूर चमोली की ओर निकले हैं मगर आपदा प्रभावितों से मिलने से ज्यादा उनका फोकस फीते काटने पर है। हां अधिकारियों के साथ उन्होंने बैठक जरूर की है लेकिन हर बार सीएम की रेस में रहने वाले धन सिंह भी सीएम के कहने के बाद ही फील्ड में उतरने का साहस दिखा पाए।

गणेश जोशी ने डेढ़ दिन ऊधमसिंहनगर में बिताया कुछ इलाकों का जायजा भी लिया और बैठक भी की। मगर इसके बाद उन्होंने फौरन दिल्ली का रुख कर लिया। सवाल ये है कि दिल्ली में ऐसा क्या है जो आपदा प्रबंधन से ज्यादा है? दिल्ली में ऐसा क्या है जो उत्तराखंड की उस जनता से ज्यादा महत्वपूर्ण है जिसने वोट देकर बीजेपी को इस उम्मीद में सत्ता सौंपी है कि जब कोई परेशानी होगी तो सरकार साथ देगी। मगर सरकार और सरकार का सिस्टम कुछ अलग ही पटरी पर नज़र आ रहा है।

धामी कैबिनेट के सबसे विवादित मंत्री प्रेम चंद अग्रवाल भी बड़ी मुश्किल से 18 जुलाई को देहरादून की सड़कों पर घूमते हुए नज़र आए। यहां वो स्मार्ट सिटी के काम का जायजा लेते दिखे, इस दौरान उन्होंने हकीकत देखी और समझ गए कि काम तो कुछ हो ही नहीं रहा, अधिकारी सिर्फ बातों को गोल-गोल घुमा रहे हैं। खास बात ये है कि प्रेम चंद अग्रवाल अपने प्रभार वाले जिले उत्तरकाशी और टिहरी जाने का वक्त अब तक नहीं निकाल पाए हैं।

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चंपावत और नैनीताल जिले की प्रभारी मंत्री रेखा आर्य कड़ी मशक्कत के बाद बरेली से लौट पाई हैं लेकिन ग्राउंड पर जाने की बजाय उनको देहरादून का शासकीय आवास ही पंसद आ रहा है वहां वो मेहमानों से मिल रही हैं और फेसबुक पर मुलाकात की तस्वीरें पोस्ट कर रही हैं?

देहरादून जिले के प्रभारी मंत्री सुबोध उनियाल देहरादून में ही हैं लेकिन उन्हें देहरादून के आपदा प्रभावित इलाकों में जाने की जरूरत महसूस नहीं हो रही। ऐसा लगता है सुबोध उनियाल ने मन ही मन ये मन बना लिया है कि जब धामी खुद ग्राउंड पर हैं और वो कुछ नहीं कर पा रहे तो मंत्री के जाने से कितनी राहत मिल जाएगी?

बागेश्वर और रुद्रप्रयाग के प्रभारी मंत्री सौरभ बहुगुणा भी सोशल मीडिया पर सक्रिय हैं, अपने पशुपालन विभाग में उन्होंने पैट्स को लेकर जो अभियान चलाया है उससे जुड़ी पोस्ट पर हर रोज कर रहे हैं मगर आपदा प्रभावितों से मिलने का वक्त नहीं निकाल पा रहे।

पिथौरागढ़ और पौड़ी तो चंदन रामदास के निधन के बाद से ही अनाथ हैं। मतलब इन दो जिलों का प्रभार किसे दिया गया है इसकी सार्वजनिक जानकारी कोई नहीं है। इन हालात में सरकार पर और सिस्टम पर सवाल उठने लाजिमी हैं। वैसे तो मंत्री किसी एक विधानसभा या एक जिले के नहीं बल्कि पूरे राज्य के प्रतिनिधि होते हैं और उनकी जिम्मेदारी भी मुख्यमंत्री की तरह ही पूरे राज्य के लिए काम करने की होती है। लेकिन जब मंत्री अपनी विधानसभा या अपने प्रभार वाले जिलों तक ही नहीं पहुंच पा रहे तो राज्य की जनता उनसे क्या उम्मीद करे ये जनता को ही सोचना है। मंत्रियों का ये हाल तब है जब सीएम के साथ साथ बीजेपी के प्रदेश प्रभारी दुष्यंत गौतम खास तौर पर बीते दिनों देहरादून पहुंचे और संगठन की स्पेशल बैठक भी की। बैठक में यही कहा गया कि मंत्री, विधायक सभी आपदा प्रभावितों की मदद करेंगे लेकिन हकीकत में हो क्या रहा है ये सब देखा और समझा जा सकता है। ऐसे में बड़ा सवाल है कि क्या मंत्री मनमानी कर रहे हैं? क्या इस मनमानी पर कंट्रोल ना कर पाना सरकार और संगठन की नाकामी नहीं है?