15 June 2025

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कांग्रेस में ‘तलवार’ किस-किस पर वार?

कांग्रेस में ‘तलवार’ किस-किस पर वार?

उत्तराखंड कांग्रेस उलझन और बेचैनी के दौर से गुजर रही है। बड़े नेताओं की दिल्ली दौड़ ने देहरादून के पारे की तरह ही सियासी तापमान भी बढ़ा दिया है। कहीं अजीब सी खामोशी है तो कहींब हुत बड़ा फैसले होने की संभावनाएं टटोली जा रही हैं। अटकलों और कयासों का दौर अब प्रभारी ही नहीं बल्कि प्रदेश अध्यक्ष की कुर्सी को लेकर भी लगाया जाने लगा है। 2022 की करारी हार के बाद करन माहरा को उत्तराखंड कांग्रेस की कमान सौंपी गई थी। करन को PCC चीफ बने हुए 14 महीने बीत गए हैं मगर अब तक उनकी टीम कागजों से बाहर नहीं आ पाई। करन को पसंद करने वाले जितने कांग्रेसी हैं उससे ज्यादा कांग्रेसी उन्हें नापंसद करने वाले हैं। ऐसे में करन रहेंगे या उनको किनारे किया जाएगा इसकी चर्चा देहरादून के कांग्रेस दफ्तर में भी तेजी से हो रही है और उत्तराखंड का हर कांग्रेसी भी इसका जवाब जानना चाहता है। सवालों की इस उलझन के बीच ही करन माहरा दिल्ली दौरे पर हैं और प्रीतम सिंह के भी दिल्ली में होने की चर्चा है। इसीलिए राजनीति के पंडित अपने-अपने हिसाब से आंकलन कर रहे हैं।

करन की चुनौती क्या है?
करन माहरा 2 बार विधायक रहे हैं, 2017 से 2022 तक उपनेता प्रतिपक्ष भी रहे हैं। 2017 के चुनाव में रानीखेत सीट पर अजय भट्ट को हराकर करन ने भट्ट का सीएम बनने का सपना तोड़ा था। मगर 2022 में करन माहार खुद चुनाव हार गए। इसके बावजूद पार्टी ने उन्हें प्रदेश अध्यक्ष बनाया। तमाम जातिगत और क्षेत्रीय समीकरणों को दरकिनार कर कांग्रेस ने तीनों बड़े पद कुमाऊं मंडल की झोली में डाले। यानि प्रदेश अध्यक्ष करन माहरा, नेता प्रतिपक्ष यशपाल आर्य और उप नेता प्रतिपक्ष भुवन कापड़ी को बनाया। इसे लेकर पहले दिन से ही अंदर खाने सवाल उठते रहे? खुले तौर पर आवाज़ बुलंद की किच्छा से विधायक तिलक राज बेहड़ ने। बेहड़ के बयान के बाद काफी बखेड़ा हुआ, बड़े नेताओं ने अपनी-अपनी सफाई दी। मगर कुमाऊं, गढ़वाल में संतुलन का मुद्दा तो उछल ही गया। इसीलिए करन के खिलाफ ये मुद्दा जा सकता है। यानि संतुलन का तर्क देकर करन से कुर्सी छीनी जा सकती है। दूसरा बड़ा मुद्दा है विधायकों में करन को लेकर नाराजगी। कांग्रेस की राजनीति को करीब से जानने वाले मानते हैं कि 19 विधायकों में से कोई भी ऐसा नहीं है जो खुलकर करन माहारा का समर्थन करे। यानि जनता के चुने हुए प्रतिनिधि अपनी ही पार्टी के अध्यक्ष के साथ खड़े नहीं हैं। ऐसे में करन का कुर्सी पर बने रहना कांग्रेस की भविष्य की राजनीति के लिहाज से नुकसान पहुंचाने वाला हो सकता है। मतलब अगर करन से कुर्सी छीनी जाती है तो आलाकमान का दूसरा तर्क ये भी हो सकता है। करन की राजनीति का तीसरा पहलू उनका कहीं भी, कभी भी और कुछ भी बोल देना है। बीते दिनों विकास नगर में करन माहरा ने खुले मंच से कह दिया था कि उन्हें कांग्रेस के उन नेताओं से दिक्कत है जो नाम ना लिए जाने, कार्यक्रम में ना बुलाने या पोस्टर में तस्वीर ना होने से नाराज़ हो जाते हैं। करन की इन बातों को लेकर पार्टी के अंदर काफी चर्चा हुई। प्रीतम सिंह के साथ करन माहरा की तल्खी जगजाहिर है। दोनों नेताओं ने एक दूसरे पर इशारों ही इशारों में कई बार बयानबाजी की है। जिससे पार्टी में एकजुटता का संदेश नहीं गया। ऐसे में करन की लीडरशिप क्वालिटी पर सवाल उठना लाजिमी है, यानि करन माहरा सबको साथ लेकर चलने में उतने कामयाब नहीं हो पाए जितनी उम्मीद की जा रही थी। लोकसभा चुनाव अब ज्यादा दूर नहीं हैं ऐसे में अगर संगठन मजबूत नहीं होगा, पार्टी में बिखराव होगा तो चुनौतियां बढ़ेंगी इसीलिए करन को हटाने का फैसला लिया जा सकता है। ये चर्चा कांग्रेस के हर खेमे में है। हालांकि फाइनल डिसीजन आलाकमान को लेना है। मगर जिस तरह लॉबिंग चल रही है उससे फिलहाल खतरा बना हुआ है।

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करन नहीं तो कौन? 
अब सवाल ये है कि अगर करन माहरा को हटाया जाता है तो उनके बदले उत्तराखंड कांग्रेस की कमान किसे मिलेगी? असल लड़ाई इसी बात को लेकर है। प्रीतम सिंह के दिल्ली दौरे को भी इसी नज़रिए से जोड़ा जा रहा है। हालांकि दिल्ली में प्रीतम किससे मिले हैं या किससे मिलने वाले हैं इसे लेकर अभी तक कोई ऑफिशियल जानकारी नहीं है। मगर प्रीतम गुट को लग रहा है कि शायद एक बार फिर उनके नेता की ताजपोशी अध्यक्ष के तौर पर हो सकती है। अगर ऐसा हुआ तो उस पर सवाल उठेंगे कि अध्यक्ष बदलना ही है तो फिर गणेश गोदियाल क्यों नहीं? क्योंकि गणेश गोदियाल को काम करने का काफी कम वक्त मिला। चुनाव से ठीक पहले उन्हें कमान दी गई और नतीजों के बाद हटा दिया गया, यानि गोदियाल को संगठन बनाने का वक्त ही नहीं मिला, उनका पूरा टाइम चुनाव में ही बीत गया। मतलब साफ है कि बदलाव हुआ तो गोदियाल का पक्ष भी मजबूत होगा। इससे कांग्रेस अपने जातीय और क्षेत्रीय समीकरण वाली थ्योरी पर भी काम कर लेगी और करन माहरा को समझाना भी आसान हो जाएगा। इसके बाद एक विकल्प ये भी है कि किसी नये चेहरे को लाया जाए लेकिन बड़ा सवाल यही है कि नया चेहरा कौन होगा, जो सब समीकरणों में भी फिट हो जाए और पार्टी को मजबूत भी कर पाए?

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आगे क्या रणनीति? 

कांग्रेस के सामने सबसे बड़ी चुनौती गुटबाजी है। हरीश रावत, प्रीतम सिंह के बीच पहले ही तल्खी थी जिसे हरीश रावत ने खुद दूर करने की कोशिश की। हरदा प्रीतम से मिलने उनके घर गए थे। उसके बाद दोनों नेताओं के बीच सार्वजनिक बयानबाजी काफी हद तक कम हुई। मगर करन माहरा के पीछे भी एक लॉबी है, एक गुट है जो उत्तराखंड से लेकर दिल्ली तक सक्रिय है। यानि करन माहरा की हिमायत करने वाले और उनकी कुर्सी बचाए रखने वाले भी हैं। मतलब तीसरा गुट भी है जो कांग्रेस में काम कर रहा है। इस गुटबाजी से कांग्रेस को बचाना ही सबसे बड़ी चुनौती है और करन माहरा भी शायद इसी गुटबाजी की शिकार हैं। अब सवाल ये कि उत्तराखंड में कांग्रेस को आगे बढ़ाने के लिए कांग्रेस क्या रणनीति अपनाएगी? इंतजार हर किसी को इसी का है कि करन माहरा जब दिल्ली से लौटेंगे तो अपनी टीम की फाइनल लिस्ट लेकर आएंगे या फिर कांग्रेस अध्यक्ष की कुर्सी पर फुल एंड फाइनल हो जाएगा। फिलहाल कांग्रेस के हर खेमे में खलबली है, हर किसी पर खतरे की तलवार है? लेकिन जब तक फैसला हो नहीं जाता तब तक कुछ भी कहना जल्दबाजी होगी, हां इतना जरूर है कि कांग्रेस का हर गुट अपना-अपना हित साधने की कवायद में जरूर जुटा है और पार्टी की अंदरूनी राजनीति पूरी तरह गर्म है जिसका नजीता भविष्य में काफी घातक भी हो सकता है।